"एक किस्सा ट्रेन और जिंदगी के सफर का"

किस्सा तब का है जब सारी दुनिया शहर को छोड़ गांव का रुख कर रही थी। पिताजी को घर से काम मिल चुका था और मेरे पढ़ाई की छुट्टी थी तो हमने गोदान की टिकट बुक करा रखी थी, जो की वेटिंग से आरऐसी में आ गई अब हमें कल निकालना था। मां और पापा को एक सीट मिली और मेरा सीट किसी अनजान व्यक्ति के साथ शेयर होने वाला था, मैं बड़ा उत्सुक था की गांव को जाना है हमने कुर्ला टर्मिनस से ट्रेन पकड़ा और आजमगढ़ के लिए रवाना हुए। फिर थाने रेलवे स्टेशन पर पहुंची जहां मेरे साथ जो सीट सांझा करने वाले थे वो चढ़ी एक औरत, जो की पसीने से लतपत और काफी जूना वस्त्र पहने हुए फिर उनके पीछे उसकी बेटी जिसके कपड़े तो मटमैले थे लेकिन वो काफी खूबसूरत थी उसकी आंखे भूंरी थी जो उसे और उम्दा बनाती थी। मेरे पिताजी ने उनके आते ही शोर करना चालू कर दिया आगे जाओ छुट्टा नहीं है ऐसा कहकर फिर वो औरत पास आई और बोली, भाई जी ये हमारा सीट है जो आरएसी में हुआ है मेरे पिताजी ने कहा टिकट दिखाओ उसने टिकट दिखाया लेकिन फिर पिताजी बोले एक सीट है और तुम दो लोग आए हो बिना टिकट सफर करवाना चाहती हो अपनी बेटी को।
तो वो औरत बोली साहेब इसका टिकट बनवा लूंगी मैंने जैसे तैसे फूल बेचकर २००० रखा है बचाकर।
अब मैं अपनी सीट पर बैठा था और उसकी लड़की मेरे सामने सीट पर और उसकी मां ने जमीं पर आश्रय ले लिया। वो लड़की ट्रेन से बाहर का नजारा देख रही थी और मैं उसे। मैंने अभी अपनी दसवीं कक्षा पास की थी और प्यार व्यार में थोड़ा दिलचस्पी बढ़ रहा था और जब उस लड़की को देखा जो बहुत ही सहज, गरीब जुने कपड़े पहने हुए लेकिन काफी शांत और आंखो में अलग तरीके का गुस्सा लिए। उसकी आंखो से ही पता चल रहा था की वो पिताजी से गुस्सा है क्योंकि उन्होंने उसकी मां के साथ दुर्व्यवहार किया था। लेकिन मुझे इसका तनिक भी प्रभाव न पड़ा मैंने उससे पूछा आपका का नाम क्या है उसने कहा अंतिमा है, हमने सोचा नाम बता दी मतलब वो हमसे गुस्सा नही है हम बातें कर सकते है तो मैंने और दिलचस्पी दिखाई और पूछ लिया कौनसी कक्षा में हो, वो थोड़ा सहमी और फिर बोली की हम पढ़ाई नहीं करते मैं और मेरी मां थाने में लोकेश्वर मंदिर के बाहर फूल बेचते थे, इस लॉकडाउन में सब धंधा चौपट हो गया। इस कोरोना के कारण मुझे छुट्टी मिली तो खुश था लेकिन उसकी आंखो में दर्द देखा तो कोरोना पे गुस्सा आने लगा। ७ घंटे हो गए बीच में टीटी आया मेरे पिताजी उसे बुलाकर पहले औरत के पास ले आए और बोले ये औरत अपने बच्चे को बिना टिकट ले जा रही है, फिर औरत को थोड़ा शर्मिंदगी हुई और उसने नर्म आवाज में बोला टीटी साहब मैने पैसे रखे है आप मेरी बेटी का तत्काल टिकट बना दो। लेकिन टीटी ने बोला तत्काल का १२०० रुपया जाएगा इतना पैसा है क्या? नहीं है तो उतर जाओ।औरत बोली हां साहेब पैसे जमा करके रखे है आप निकाल दो हम खाना नहीं खायेंगे लेकिन अपनी बच्ची को लेके जायेंगे। मैं उनके हालात को समझा लेकिन मैं तो कुछ नहीं कर सकता था। मैंने उस लड़की की आंखो में दर्द देखा और वो दर्द गरीब होने का था। उसकी आंखो पे आंसू जैसे पेड़ के पत्तो पे ओस। जिसे छूने से ही पता चलता है की वहां ओस है, मैंने उसे कहा की तुम परेशान मत हो सब ठीक हो जायेगा। रात का समय सबने खाना खाया मैं और सामने वाली सीट का एक बच्चा थोड़ा घूमने निकले आगे हमें एक कपड़ा मिला जिसमें ८०० रुपए लपेटे हुए थे, हमने सोचा की पैसे मिले है अब तो सफर पे मजे करेंगे। मैं और वो लड़का सुबह होते ही एक स्टॉप पे गए बाहर बिरयानी और दो लस्सी ले ली हमारे २०० रुपए खर्च हुए फिर उस लड़के ने ३०० रुपए रखे और ३०० रुपए मुझे दिए दिया उस कपड़े में लपेटे हुए। मैने उसे खुश होकर जेब में रख लिया, फिर ट्रेन चालू हुई मैं सीट पे बैठा था फिर उस लड़की को निहारने लगा सोच रहा था अगले स्टॉप पे इसे कुछ खरीदकर खाने को पूछता हूं। फिर अचानक उसकी मां जो जमीं पर लेटी थी उठी और कहने लगी की मेरे ८०० रुपए चोरी हो गए, मैने एक कपड़े ने बांध के रखे थे। मेरे पिताजी उसके गुहार पे उसे ही चिल्लाने लगे की कुछ चोरी नहीं हुआ सब तुम्हारा तरीका है पैसे निकलवाने का हम जैसों से फिर तुम कहोगी अब मेरे पास पैसे नहीं है मैं कैसे अपने घर पहुंचूंगी मुझे मदद कर दो और तुम पैसे ऐंठ लोगी। वो औरत और शर्मिंदा हो गई अब पूरे डब्बे में सिर्फ मुझे और उस लड़के को पता था की उस औरत के सच में पैसे गायब हुए है। लेकिन हम करे भी तो क्या? लेकिन वो लड़की भी अब मुंह बंद करके सिसकियां भरने लगी और अब मेरा दिल बैठ रहा था की मैने क्या पाप कर दिया। और उस लड़की के आंखो में आंसू देख कर लगा जैसे आंसू मेरा दिल छेद रहे थे, अब मैं क्या करू फिर याद आया कि पापा के बैग में ५०० रूपयो की गड्डी है, मैंने बहाना किया की मुझे ऊपर वाली सीट पर सोना है नींद आ रही है तो पापा नीचे आ गए और मैं ऊपर गया लेकिन पापा ने कहा देखना यहा बैग है और यह चोर बहुत है। मैं ऊपर गया और सोने के बहाने एक नोट निकाल लिया ५०० का और उसे मोड़कर थोड़ा जूना जैसे करने लगा, फिर १ घंटे बाद मैंने पापा से कहा मुझे लाइट्रिंग जाना है आप ऊपर आ जाओ। मैं धीरे से नीचे उतरा और लाइट्रिंग होकर आया फिर जमीं पर जो मैंने जाते वक्त कपड़ा फेका था, उसे पैर बाहर निकाला कोने से और फिर चिल्ला कर पूछा ये ही क्या आपके पैसे है वो बोली हां हां और उसके खुशी का ठिकाना न रहा। और उसी के साथ उस लड़की के चेहरे पे जो मुस्कान आती जैसे बहुत दिन के बारिश के बाद सूरज निकला हो। मैं उसकी खुशी देखकर खुश हो गया। फिर कुछ घंटो बाद उसकी मां, अपना सामान लेकर तयार हो गई और सामान क्या एक गट्ठर था और बोली चल बेटी शाहगंज आ गया, ये सुनते ही मेरे दिल में मायूसी सी आई और जो मेरा कभी था ही नही जिसे मैं जानता तक नहीं कुछ घंटो पहले जिससे मिला उसको खोने का डर, ये कैसा अहसास है। और फिर स्टॉप पे वो एक मुस्कुराहट के साथ उतर गई। वो लड़की जिसके पास कुछ नहीं था कपड़े भी गंदे पुराने थे लेकिन भगवान ने उसे ऐसे मुस्कुराहट के गहने से नवाजा है की कोई कितना भी अमीर हो उसे पा नहीं सकता।
मैं आज भी आजमगढ़ जाता हूं तो शाहगंज में उतरकर उस मुस्कुराहट की यादों को ताजा कर लेता हूं।

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